नगरी हो मधेपुर सी, मंडप का कोना हो । जहाँ चरण हों गुरुदेव के, वहाँ मेरा ठिकाना हो ॥१॥
प्रातः की आरती हो, महाकाल का पूजन हो । संध्या की आरती से, दिन मेरा समापन हो ॥२॥
अभिषेक हो महादेव का, जहाँ हवन हो यजन हो । गुरुदेव का सानिध्य हो, श्रद्धा पुष्प अर्पण हो ॥३॥
ग्रंथों की रचना हो, आध्यात्म की गंगा हो । कलि काल के दोष जहाँ, निर्मल हो चंगा हो ॥४॥
महाकाल का पीठ जहाँ, महाकाली तप करती । विषय विष को जहाँ, विष से अमृत करती ॥५॥
जिन चरणों की धूलि से, त्रिताप छूट जाए । जीवन अमृत हो कर, सारे बंधन टूट जाए ॥६॥
गुरुदेव की वाणी से, मेरी नींद खुल जाए । निर्वाण सहज जिनके, चरणों में मिल जाए ॥७॥
सर्वस्व समर्पण हो, जीवन ये अर्पण हो । गुरुदेव के चरणों में, विवेक का (मेरा ये) वंदन हो ॥८॥