विषय-प्रस्तावना

हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व की समस्त साहित्य-संपदा अपने संरक्षण-संवर्धन हेतु संतों का ऋणी रहा है। साहित्यकारों ने यदि साहित्य की काया को सजाया-सँवारा है तो संतों ने इसकी आत्मा का श्रृंगार किया है। प्रत्येक सभ्यता-संस्कृति के पोषण में, उसकी कुरीतियों के निवारण में तत्कालीन समाज के वैसे नायक-नायिकाओं का हम प्रादुर्भाव देखते हैं जो त्याग-बलिदान की उदार भावना से भरे हुए, सांसारिक मोह-माया को तुच्छ मानने वाले, विशाल व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। जनसामान्य से हटकर उनमें जो मौलिक, चिंतन, बौद्धिक प्रखरता और अतः प्रेरणा की तीव्रता पाई जाती है वही उन्हें संत कोटि का पद प्रदान करती है। हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल यदि कबीर, तुलसी, सूर की महान रचना से स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान है तो अब तक काल-प्रवाह में बहुत से संत का साहित्य किसी अज्ञात क्षेत्र में, स्थानीय स्तर पर ही चेतना क्रांति का संवाहक बना हुआ है। न तो यह समाज की आज सामाजिक-धार्मिक कुप्रथाओं, भेदभाव, छुआछूत, सांप्रदायिक वैमनस्य से मुक्त हुआ है और न ही इन पर कुठाराघात करने वाले संतों की महत्ता गौण हुई है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं शताब्दी तक हमने दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, मुक्तानन्द, योगानन्द, श्री अरविन्द, महात्मा गांधी, रमन महर्षि, प्रभुपाद जी जैसे अनेकानेक संत विभूतियों का साक्षात्कार किया जिनकी वक्तृता, लेखनी एवं सत्संग-संस्मरण ने भारतीय संस्कृति-सभ्यता के नवोत्थान में अपना अमूल्य योगदान दिया, साथ ही विश्व के अन्य प्रांत में भी वैदिक संस्कृति का झंडा लहराया। स्वातंत्रयोत्तर भारत की ऐसी ही संत विभूतियों में से एक हैं- योगर्षि श्रीकपिल जिनके साधवोचित उत्कृष्ट व्यक्तित्व एवं विलक्षण कृतित्व से आज समस्त हिंदी जगत कृतकृत्य हो रहा है। उनकी रचना का विपुल भंडार हमें 21वीं सदी में प्राप्त हो रहा है जो अपने काव्य-सौंदर्य एवं संदेश की सार्थकता के कारण गहन शोध का विषय बना है। समकालीन आलोचकों एवं शोधार्थियों के दृष्टि-पटल से अनवलोकित ये काव्य-संपदा शोधश्री से विभूषित हो और भी अधिक जनसेवी सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं है।

योगर्षि श्रीकपिलः व्यक्तित्व एवं कृतित्व

भारतीय साधना धारा के भिन्न-भिन्न स्थापित साधनाओं के अभ्यास में बाल्यकाल से ही सिद्धहस्त, त्याग-वैराग्य की प्रतिमूर्ति, ज्ञान-भक्ति एवं कर्म के समन्वयवादी संत योगर्षि श्रीकपिल का जन्म 11 अगस्त 1951 ई0 को हुआ। इनके पिता श्री बलबीर मिश्र मिथिला के मधेपुर ग्राम के एक प्रतिष्ठित शाकलद्वीपीय ब्राह्मण वंश के प्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक थे। इनके पूर्वज आज से लगभग 200 वर्ष पहले दरभंगा महाराज के आमंत्रण पर मनसूरचक से आकर मिथिला में बसे थे। कृष्णकाल से ही शाकलद्वीपीय ब्राह्मण आयुर्वेद, ज्योतिष एवं सूर्यभक्ति में निष्णात माने जाते रहे हैं। श्रीकपिल भी इनके अपवाद नहीं थे। इनकी बाल्यकाल की रचना ‘श्रद्धा’ से पता चलता है कि पूर्वजन्मार्जित संस्कारवश ये बचपन से ही भगवद्भक्ति में लीन रहते थे। इन्होंने जगत के सार तत्व का अन्वेषण कर लिया था -

या नीरस संसार में सार रस इक नाम

ज्ञानी खोजे प्रेम से तज औरन जग काम

उच्च विद्यालय स्तर की कक्षा में आते-आते उन्हें गीता कण्ठस्थ हो चुकी थी और उसके सांख्य-परक श्लोकों को चिन्हित कर वे उसका अभ्यास करने लगे।

योगी हो कपाल माँहि भृकुटि मध्य परम प्रकाश निहारे हैं

साधन को साध-साध पद निर्वाण पाबे हैं।

तदन्तर महाविद्यालय स्तर का अध्ययन अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर इन्होंने देश के प्रसिद्ध तीर्थस्थलों का भ्रमण किया। इनके डायरी के पढ़ने पर प्रकृति के सभी चित्र खींचते चले गये एवं भगवद् प्रेम की दिव्यता और अध्यात्म का एकांतिक वार्तालाप कविता के माध्यम से व्यक्त होने लगा। अनंत ज्ञान का यह जिज्ञासु पथिक आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रती होकर दिव्यता के विविध संस्पर्शों को संजोने लगा।

प्रमुख रचनाएँः-

योगर्षि श्रीकपिल की अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम काव्य रहा है। आध्यात्मिक तथ्य एवं अनुभूतियों के विषद-विष्लेषण हेतु उनकी कतिपय गद्य रचनाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। उनकी अब तक कुल 32 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है जिनमें मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैंः-

  1. अमृत पराग 5. गुलाल 9. प्रेत रहस्य
  2. पंखुरी के हंस 6. शिखा 10. मृत्यु-चक्र
  3. माँझी और झील 7. अंकुर 11. तत्व बोध
  4. अंगार का अंजन 8. क्रीड़ा 12. कपिलोपनिषद

श्रीकपिल के काव्य की प्रासंगिकता

अन्य संत-साहित्य के समान ही आजकल भी निम्न कारणों से योगर्षि कपिल की काव्य की प्रासंगकिता हैः-

  • (अ) जाति-पाति का विरोध/सामन्तवादी विचारधारा का विरोधः-

उक्त संदर्भ में यत्र-तत्र दोहा, कविता, सूक्ति भरे पड़े हैं। एक-दो उदाहरण द्रष्टव्य हैः-

दीनबन्धु से नेह जौं क्यों दीनन ठुकराय

बन्धु दुखी हो देखके स्वयं आप मुरझाय

(श्रद्धा)

खोटा देख चुने नहीं खोटा यह संसार

अंधकार के राज्य में उद्गण खिले हजार

( गुलाल)

  • (ब) साम्प्रदायिक एकता के पैरोकारः-

आज के संदर्भ में जब समाज भिन्न - भिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के प्रति असहिष्णु बना है- योगर्षि का संदेश अतिशय महत्वपूर्ण प्रतीत होता है-

एक डाल पर कई पंछी संग-संग ख़ुशी मनाते

नहीं झगड़ते फूल चमन में सदा साथ मुस्काते

लड़ते नहीं तारे गगन में एक सोम संग गाते

एक हिमगिरि से कई निर्झर संग धरा पर आते

( पंखुरी के हंस)

  • (स) पाखण्ड, वितण्ड एवं रूढ़ियों का विरोधः-

उक्त संदर्भ में उनकी निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैः-

कर की घंटी टन-टन बाजे मन की घंटी नाहि

कपिला मन घंटी बिना हरि मिलत है नाहि

( पंखुरी के हंस )

अंदर से काला भरा बाहर चकमक छाय

रे मूरख ये चकमकी खाक बन उड़ जाय

( गुलाल-मिथ्याचार )

  • (द) वाह्याचार एवं अंधविश्वासों का खंडनः-

सत्य द्रष्टा आन्तरिक रूपान्तरण के पक्षधर होते हैं न कि वाह्याचार का, देखिए-

चंदन खाक लगाय के जट्टा लियो बढ़ाय कर कमंडल खनती धिये झोरी बगल लपटाय

हो बहुरूपिया बन बौराय - हो बहुरूपिया बन बौराई (पंखुरी के हंस)

भ्रम में भरमे मानव जग में तीर्थ तीर्थ बौराय

सत्य तीर्थ है क्षमा तीर्थ है अन्तर देत जगाय ( पंखुरी के हंस)

श्रीकपिल के संत साहित्य की विशेषता

श्रीकपिल के समस्त साहित्य का अध्ययन करने पर हमें उनकी काव्य रचना की निम्नांकित विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।

  1. रहस्यवादः- सृष्टि के कार्य व्यापार के पीछे क्रियाशील, इस संसार को चलाने वाले में आस्था ही रहस्यवाद का मूल है। यह आस्था आरम्भ में विस्मय एवं जिज्ञासा भाव के रूप में सामने आती हैः-

यह अलंकृत प्रकृति-चारण किस महान का करता वंदन

किस राजन ने किया है धारण विश्व - सभा-कीरीट-अभिनंदन

(अमृत पराग) 2. वेदना भावः- उनकी भावपरक रचना की केंद्रीय संवेदना में एक अलौकिक वेदना सर्वत्र दृष्टगत होता हैः-

मन नीर भरो तन पीड़ भरो

कैसी ऋतु आई शाम सुहावन की

( अमृत पराग )

सदियों से बरसता है सावन मरूभू कुँवारा बैठा है

युगों से उतरता है सूरज जंगल में अंधेरा छाया है

(अमृत पराग) 3. छायावादः- योगर्षि की प्रारम्भिक रचनाएँ- ‘अमृत पराग’ एवं ‘पंखुरी के हंस’ में छायावाद शैली का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता हैः-

घटा की डोली में/सितारों की बारात है

पंखुरी के घूँघट में/भ्रमरों की शहनाई है

आँखों में तैरती हो/नब्जों में गुनगुनाती हो

सांसों में खेलती हो दिन के धड़कनों के गीत हो

( पंखुरी के हंस ) 4. विवेकानन्द एवं श्री अरविन्द का प्रभावः- युवा सन्यासी के प्रेरणास्त्रोत रहे स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचार एवं समाजोत्थान का संकल्प योगर्षि के काव्य में सहज अनुमेय हैः-

उठो उठाओ अपने आपको

चोटी के उन तारों में

जहाँ से खिलता फूल चमन में

आता मस्त बहारों में

( अमृत पराग )

श्री अरविन्द के रूपान्तरण में योगर्षि की आस्था स्पष्ट हैः-

शिक्षक तुम्हारा ऊँट क्यों न रेगिस्तान जहाज

इससे तू न तरोगे बिना रूपान्तरण यार

( गुलाल )

श्रीकपिल के काव्य में निहित दर्शन

योगर्षि की रचनाओं में उनकी साधना के ही अनुकूल सांख्य, योग एवं वेदांत दर्शन की झलक मिलती हैः-

सांख्यः-

चौबीस तत्व के दो घाघबने बीबी साहब

इक घाघरा मिट्टी पत्थर

इक बात की नाव

( त्रिवसनी-अंगार का अंजन)

पंचमहाभूत, पंचतन्मात्राएँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंचज्ञानेन्द्रिय सहित अन्तःकरण चतुष्टय रूपी चौबीस तत्व से बने जीवात्मा के स्थूल शरीर एवं लिंग शरीर का अस्तित्व सांख्यसम्मत है।

वेदांतः-

बीज अंकुर से पहले न खेत खलिहान

चावल गेहूँ गलने से न पहचान पकवान

एक पाँव में चार पाँव रहे चारों के चार देश

उजड़ा चमन आँधी वेग से रहे मिष्ठी चीनी वेश

( सुरसरि स्नान-अंगार का अंजन)

अर्थात सृष्टि के सृजन के पूर्व एकमात्र आत्मा का ही अस्तित्व रहता है एवं सृष्टि के अंत में भी एकमात्र यही शेष बचता है।एक ही परमतत्व से चार प्रकार की सृष्टि है- आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं कैवल्य-जैसे एक ही चीनी से अनेकविध मिष्ठान्न बनता है। यही वेदांत दर्शन का सार है।

योगः-

इक पिया घर आसन बैठे करे मुहल्ला हिसाब

नाप जोखकर पट सिलावे खेवे सर में नाव

एक बहुरिया घूँघट ओढ़े बसे रसे खजूर

हीरा पन्ना माणिक गिने रहे शहरसे दूर

(परकोटा-अंगार का अंजन)

अर्थात एक पुरूष हृदय में रहता है जो बुद्धि, मन, प्राण एवं भूत तत्व का नियमन करता है।एक पुरूष का निवास सहस्त्रार चक्र पर है जो नाम, रूप, गुण, विशेषण से परे अव्यक्त है। योगारूढ़ होकर जीवभाव से मुक्त होकर ही योगी ब्रह्मभाव में जगता है।

श्रीकपिल के काव्य में अलंकारगत रमणीयता एवं प्रतीक विधान

कविता योगर्षि की अभिव्यक्ति की, विशेषतः अनुभूतियों के प्राकट्य का कारण रही है। इसमें परंपरागत शास्त्रीय अलंकार एवं छंद आदि की छटा तो नहीं दिखती परन्तु सहज काव्यत्व से विभूषित इनकी कविताओं में अलंकार का दर्शन यत्र-तत्र सुलभता से होता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंः-

उपमाः-

चुटकी मृदा नोच कर टीला खाई होय

मुट्ठी राख खाई पड़े महार बने जस सोय

(ऋतोपदेष-गुलाल)

विभावनाः-

शिरा गुच्छ आकाशमें डाली पत्र धन-छाँव

बिन गोबर पानी फले पेट भरे सब गाँव

(पाँच पिटारी-अंगार का अंजन)

अन्योक्तिः-

वीचि छुअे पुलिन को फिर भी कैरव उदास

अमावस्या में चकवा ऋतुपति मधुप निराश

(प्रार्थना-38, गुलाल)

दृष्टान्तः-

अति चकित होगे बन्धु छुटेगा जब शरीर

क्या से क्या हो गया हटे मत्स्य जब नीर

(गुलाल)

अनुप्रासः-

चपल चन्द्र चंचल चकोरा

ढूँढे किनारा माँझी सवेरा

(अमृत पराग)

प्रतीक विधानः-

संगमरमर के जगमगाते घरों में

रसोईखाना बना रखा है तूने

धूल सनी हवा के झोंके में

खिड़की खोल रखी है तूने

(अमृत पराग)

यहाँ संगमरमर का घर अमूल्य मानव तन का प्रतीक है और रसोईखाना भोगवादी संस्कृति का। धूल सनी हवा का झोंका विषय भोग का प्रवाह है तो खुली खिड़की इन्द्रियों की बहिंर्मुख गति का प्रतीक है।

निष्कर्ष

लगभग 2100 दोहा, 1500 कविता एवं अनेकानेक गद्य, निबंध के रचनाकार योगर्षि श्रीकपिल साहित्य के सर्वोत्तम उद्देश्य में निरन्तर संलग्न रह न सिर्फ साधक समाज के उपयोगी संसाधन में श्रीवृद्धि कर रहे हैं अपितु साहित्य प्रेमियों के चिर पिपासा की भी तृप्ति कर रहे हैं। आज जब लोकैषणा, वित्तैषणा से ग्रस्त छद्म संतों के विशाल प्रचार-प्रसार माध्यम के कोलाहल में सच्चे विरक्त, आत्मज्ञानी, नैसर्गिक द्रष्टा कवियों की वाणी सत्संगियों के एकांत प्रदेश में सहमी हुई है तो योगर्षि श्रीकपिल के इन प्रत्यक्षानुभूत साहित्य की समीक्षा निश्चय ही शोध कार्य की सार्थकता सिद्ध करेगी, मिथ्याचार का निवारण कर सदाचार को प्रकाशित करेगी।