आश्रम से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका “सप्त-रश्मि” के प्रथम प्रकाशन के लिए सभी सदस्यों को ढेर सारी शुभकामनाएं. ये पत्रिका श्री गुरुदेव के आशीर्वाद और आप लोगों के सतत प्रयास का शुभ फल है.
इस लेखनी का एकमात्र उद्देश्य अपनी कुछ भावनाओं और अनुभवों को साझा कर आश्रम के अन्य सदस्यों से अपने को जोड़ना और साथ-साथ अपने उत्थान के लिए प्रयास करना है.
यह शरीर और जीवन हमें ईश्वर से मिला अनोखा व सर्वोत्तम उपहार है और इसे सुन्दर और सफल बनाना हमारा धर्म है.
यह मानव जीवन हमें स्वयं को परिवर्तित कर विकास के मार्ग में अग्रसरित करने के अनेको अवसर प्रदान करता है. इसका एकमात्र उद्देश्य आत्म - शुद्धि और पूर्णता को प्राप्त करना है. यह हमारे चेतना के विकास के क्रम में एक दुर्लभ अवसर है, जिसमें हमें जीवन को उत्तम तरीके से व्यतीत करने के साथ-साथ इसके सर्वोत्तम तरीके की खोज भी करनी होती है, ताकि इस संयोग का अधिकतम लाभ मिले.
खान - पान व स्वस्थ्य (Food & Health) -
एक दुर्बल और बीमार शरीर न तो सांसारिक सुखों का भोग कर सकता है न ही अपने विकास एवं सांसारिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने को ही सक्षम है. इसके अलावे शरीर के अंत होते ही हमारे आत्म - शुद्धी व उन्नति की सारी संभावनाएं समाप्त हो जातीं है. इसलिए ये हमारा प्रथम धर्म है कि हम अपने स्वस्थ्य का उचित ख्याल रखें.
आजकल हमारा आहार हमारे स्वास्थ्य के बिलकुल प्रतिकूल है. ‘पैकेज्ड-फूड्स’ जिसमें केमिकल्स और प्रिसर्वेटिव्स का प्रयोग होता है, प्रोसेस्ड खाद्य (जैसे तेल, घी आदि) जिसकी शुद्धता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की इसे बनाने में लगनेवाले कच्चे पदार्थों की कीमत से भी कम दर में ये बजार में उपलब्ध है. वही ‘स्ट्रीट फ़ूड’ का अधिक चलन हो गया है, जिसका हमारे शरीर को पोषण देने में और इसकी वृद्धि में कोई भी योगदान नहीं होता. उल्टा ये हमारे पाचन तंत्र को नुकसान पहुँचाता है और इनसे जुड़े अनेक बीमारियों को आमंत्रित करता है. इन वस्तुओ का निम्न मात्रा में उपभोग या इन्हें पूर्ण रूप से त्यागना ही उचित है. इनकी जगह पर फलों और सब्जियो का अधिक मात्र में सेवन करना चाहिये. साधारण खाना जैसे दाल, चावल, रोटी, सब्जियाँ जिसमे कम मात्रा में तेल व मसालों का प्रयोग हुआ हो, उसका सेवन और इनसे मिलने वाले पोषण (बैलेंस्ड डाइट) का विचार करना ही अपने शरीर का उचित ख्याल करना है.
प्रत्येक दिन हल्का-फुल्का व्यायाम शरीर में स्फूर्ति प्रदान करता है. आजकल अधिकांश लोग अनियमित दिनचर्या का शिकार हो गए है, जिसमे सुबह देर से उठाना, समय - सारणी का अनियमित होना , पुरे दिन आलस और प्रमाद से भरा होना आदि. जिससे हमारी रचनात्मकता, उत्पादकता आदि तो प्रभावित होती ही है साथ में स्वाभाव में चिड़चिड़ापन, अवसाद आदि आ जाता है. कुछ लोग आलसी बने रहते है और कोई व्यायाम नहीं करते या फिर अत्यधिक व्यायाम कर “छै – पैक” व मशल्स बनाने में लगे रहते है, ये दोनों ही हानिकारक है. अधिक व्यायाम उनके लिए उचित हो भी सकता है जो किसी खास प्रोफेशन में है, परन्तु सामान्य लोगो के लिए अनावश्यक है.
अगर हमारा शरीर स्वस्थ है तो तो जिंदगी सुखद होगी अन्यथा अस्वस्थ शरीर के लिए तो सारे सुख सुविधा और साधनों का भी कोई मोल नहीं.
संबंधो का महत्व (Importance of relationship) -
हमारे कुटुंब और रिश्तेदार हमारे मन की प्रसन्नता और शांति के जिम्मेदार होते है. प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से हमारी उनसे और उनकी हम से कई उम्मीदे जुड़ जाती है. हमारे माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, बच्चे, चाचा-चाची, मामा-मामी, गुरुजन, मित्र, सहकर्मी व अन्य बन्धु- बांधव , इनसे हमारे सम्बन्ध और उनके महत्व को हमें बारीकी से समझाना चाहिये और उनकी मार्यादाओ का ख्याल रखना चाहिये. इनमे उचित समन्वय नहीं होने से हमें बहुत मानसिक कष्ट उठाना पड़ता है.
ये अक्सर देखने को मिलाता है कि हम एक-दो संबंधो को उचित से ज्यादा महत्व देते है और अन्य संबंधो को भुला देते है, जिससे हम इन संबंधो का सुख नहीं ले पाते तथा उनसे दूरिया बढ़ जाती है. गहरे रिश्तों को नहीं निभाने से लोक मर्यादा में भी कमी आती है. हम पारिवारिक और सामाजिक जीवन में तो असफल होते ही है साथ में हमारा मन भी कलुषित और अशांत रहता है.
लौकिक मर्यादा और नैतिकता का विचार तथा तदनुरूप व्यवहार हमें संबंधो में उचित समन्वय रखने में मदद करता है. मैं ये मानता हूँ की शांत और प्रसन्न मन में ही रचनात्मकता का विकास होता है.
लोग संबंधो में तनाव को कम करने के लिए उसका तात्कालिक समाधान करते है या कुछ बातो से उन्हें टालने की कोशिश करते है. यह हमेशा सही नहीं होता है कुछ ‘कनफ्लिक्ट’ की जड़े गहरी होती है जिसे टालने से वह लम्बे अरसे का तनाव होता है और भविष्य में अधिक विकृत रूप में सामने आता है. अतः इसे शरुआत में ही सही और नैतिक निर्णय देकर तथा उसे मूल से समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिये. इससे लम्बे समय तक चलने वाले मानसिक संताप और भविष्य के बड़े संघर्ष से बचा जा सकता है.
मै इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ की हमेशा ये हमारे हाथ में नहीं होता पर हमारा प्रयास यही होना चाहिये.
जीवन में गुण और अनुभवों का संचयन करे न की वस्तुओं का -
अक्सर परिवार में बच्चों से पुछा जाता है की वो बड़ा हो कर क्या बनेगा, किन-किन वस्तुओ को खरीदेगा, किन सुविधाओं का उपभोग करेगा, परन्तु वास्तविकता ये है की इन्हें प्राप्त करने में किया गया संघर्ष और प्राप्त अनुभव ही श्रेष्ठ है .
संसार में वस्तु संचय करनेवाले बहुत है परन्तु गुणी और अनुभवी लोग उसकी तुलना में बहुत कम. मनुष्य को जीवन में नए अनुभव प्राप्त करने अथवा अपने गुणों में संवर्धन के अवसर को कभी छोड़ना नहीं चाहिये. वस्तुएँ , ख्याति, मान -सम्मान आदि तो इसके ‘बाई-प्रोडक्ट्स’ (उपोत्पाद) है और इनका आना-जाना जीवन में लगा रहता है.
समाज में अनुभवी और गुणी जनों का ही मान - सम्मान स्थिर बना रहता है. वस्तुए तो किसी को विरासत या दान में भी मिल सकता है. परन्तु गुण तो विरासत में विरले को ही मिलाता है. जीवन में अनुभव और गुणों को प्राप्त करने के लिए सभी को संघर्ष करना ही पड़ता है. इसमें नए अवसर भी गुण और अनुभव के आधार पर ही मिलता है.
अतः गुण और अनुभव ही सच्ची सम्पति है.
कर्म ही श्रेष्ठ है -
दुनियाभर में कई गुणी और सामर्थ्यवान व्यक्ति अत्यधिक मोह के कारण स्वार्थजनित कर्म में ही पूरी जिंदगी गुजार देते है. वे अपने नैतिक कर्तव्यों के पालन में भी असमर्थ ही होते है.
वही सुविधाओ और गुणों से वंचित कोई अदना सा व्यक्ति श्रेष्ठ कर्मो को सम्पादित कर लोगो को चकित कर देता है. ये ईश्वर प्रदत लगन ही हमें श्रेष्ठ कर्मो में संलगित करता है.
हमें यह जीवन बहुत छोटी अवधि के लिए मिला है. इन्हें अपने गुणों को निखारने व श्रेष्ठ कर्मो के संपादन में लगाना चाहिये. क्योंकि हमारी पहुँच सीमित हो सकती है परन्तु , हमारे कर्मो की पहुँच बहुत दूर तक जाती है.
सच्ची प्रेरणा स्रोत -
जब भी बचपन से आज तक कुछ भी सिखने की बात सोचते है तो माता-पिता, शिक्षक, भाई - बहन, मित्र आदि की तस्वीर सामने आती है. क्या ये मूर्तियाँ जो हमें सिखाती हैं हम वही सिखतें है या कुछ और है, जो हमें इनसे सिखलाता है ?
इसका उत्तर ये लगता है की हमारी श्रद्धा - जड़ इनसे जुड़ती है तो हमें इनके गुणों को सिखने की प्रेरणा होती है. हमारी अन्तः प्रेरणा ही है जो हमें नए लोगों से मिलाती है और हमारे अन्दर श्रद्धा जगती है उनसे सिखने की. और यही प्रेरणा हमारे अन्दर नए गुणों को विकसित कराती है.
श्रीगुरुदेव एकबार मुझे बोल रहे थे की “मैं तो फिजिक्स - केमिस्ट्री नहीं जनता ( मैं तो वही दे सकता हूँ जो मेरा विषय है)” . शायद मेरा मन कह रहा था कोई शिक्षक तो किसी खास विषय को समझा सकता है परन्तु अन्तः प्रेरणा हमें इस दुनिया से सिखने के लिए हमेशा हमारे अन्दर के किसी श्रोत से आती है. यह श्रोत अगर बाहर हमारे सामने हो तो इससे बड़ा ईश्वरीय चमत्कार और क्या हो सकता है. शायद इसीलिए कहा जाता है कि “आत्मज्ञानी गुरु के सान्निध्य से बड़ी ईश्वर-कृपा और कोई नहीं हो सकती”.
मुझे इस शरीर और जीवन के प्रति उदासीन रहकर आत्म-उन्नयन की बात समझ में नहीं आती, जबतक हमें इससे भी कारगर कोई अन्य साधन उपलब्ध न हो, जो हमें अभीतक ज्ञात नहीं है. हमें ईश्वर प्रदत ये देह और जीवन मिला है, इसे और अधिक सुन्दर व सफल बनाने के लिए प्रयास करना हमारा मानवीय धर्म है.