आज अपने आश्रम से प्रकाशित हो रही इस “सप्त रश्मि” पत्रिका के लिए प्रथम आलेख लिखते हुए अपार हर्ष हो रहा है । श्री गुरुदेव को नमन कर, उनके द्वारा लिखित विघ्नहर्ता श्री गणेश जी और वाग्देवी माता सरस्वती का ध्यान जो “गुलाल” में प्रकाशित हो चुका है यहाँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ । और श्री गुरुदेव से प्रार्थना करता हूँ की उनके आशीर्वाद से यह पत्रिका अपने उदेश्य में सफल हो ।

ध्यान

उल्का दन्त दृग रक्तधन कर्ण तमाल साया

सूढ़ वीची भाल आद्रि वर्ण उषा परिधान पीत

हुंकार दामिनी गमन निर्झर चरण चन्द्रकदली

उदर अरण्य भुजा वीथि बुद्धि उदधि भाव - शीत

मैं देवों में अग्रपूज्य गणेश की अभिवंदना करता हूँ जो सुन्दर मनोहर तेजवी में आविर्भूत होकर हमारी बुद्धि को भगवान की ओर उन्मुख कर हमें मुक्ति के पथ , आरूढ करते हैं। गणपति की सम्पूर्ण काया मानों उदीयमान उषा की लालिमा से जल है जिसमें उनका पीला वस्त्र अत्यंत शोभनीय हो रहा है । सूर्य की प्रत्यावर्तित किरणों से चमकते हिम पर्वत के समान देदीप्यमान उनके विस्तृत भाल से नि:सृत सृढ़ का आलोडन मानों उन्मुक्त बहती सरिता की तरंगायत लहर हो जिसके तट पर तारकमण्डल से पतित उल्का की धवल रेखा सा चमकता एकल दन्त गजानन का सौन्दर्य बिखेर रहा है। अपनी करुणापूर्ण दृष्टि से भक्त के मानस में विवेक, प्रज्ञा, विद्या, बुद्धि के वैभव को प्रकट करने वाले एवं वक्र दृष्टि से बिघ्नों के समूह को नाश करने वाले विद्यावारिधि के विशाल आरक्त नयन के उभय कोर पर तमाल शाख की सुखद शीतल छाँव प्रदान करते कर्ण पट जगत में दया, क्षमा का ज्ञान कर रहे हैं ।

इस भवाटवी में भटके हुए जन के लिए आपकी विशाल भुजा मानों आत्मा की ओर बढ़ती हुयी राहें हों जो विज्ञान के आलिंगन में जीव को लेकर देवत्व प्रदान करती हैं। आपका विशाल उदर मानों तपोनिष्ठ ऋषियों को प्रश्रय देता किसी अरण्य का विस्तृत क्षेत्र हो जहाँ से सृष्टि में सम्मूर्ण विद्या, कला, विज्ञान का संचरण होता है ।

हे गणाधिपति ! आपकी ओजस्वी वाणी की हुंकार मानों आकाश और धरा को प्रकाशित करने वाली विद्युत्प्रभा है जो अज्ञान, कुतर्क, संशय, अश्रद्धा, अचेतना के अन्धकार को क्षण भर में नष्ट कर देती है । जगत में समस्त शक्ति, ज्ञान, चेतना, आनन्द का आधार वही मन्त्र शक्ति है जो विज्ञान रूपी पर्वत की कन्दराओं से फूटकर मन, बुद्धि के धरातल में निर्धारिणी के समान बहती है ।

क्षिप्रगति से आत्मभूमि से चलकर प्रकृति भूमि में उतरते आपके युगल चरण मानों चन्द्र ज्योति से निर्मित केले के वृक्ष हों जिनका अप्रतिम सौन्दर्य जगत में ज्ञान जनित भाव की सामंजस्यता, मधुरता, शीतलता का संचार कर रहे हैं।

हे बुद्धोदधि ! जन्म-जन्म से पूर्णत्वान्वेषण में स्वाध्याय करती हमारी बुद्धि मानों विश्राम को खोजती विकल चंचल सरिता है जिसकी यात्रा आपके विज्ञान सागर में समाहित होकर ही अंत को प्राप्त करती है ।

हे विनायक ! अपने दयार्द्र स्वभाव से सहज कृपालु बन हमारी भव-यात्रा को विराम दिजिए ।

ध्यान

शब्द अक्षर स्वर स्वरूपा विद्या दीप जलायी

तिमिर मिटाकर वागीश्वरी सिद्धि दी दिलायी

मैं प्रणाम करता हूँ शब्द, अक्षर, स्वर स्वरूपा वागीश्वरी को जो हमारे चित्त में विद्या रूप में प्रविष्ट हो आत्म ज्ञान का प्रकाशन करती हैं। जीव के जन्मांतरों की अविद्या के अंधकार को मिटाने वाली विद्यालोकप्रदायिनी वागीश्वरी की कृपा से मैने वाक्तत्व की पूर्ण सिद्धि पायी है - मृत्यु के बाद मैं वाग्लोक में अष्टयोगिनियों से युक्त भरतभूमि की प्राप्ति कर नभ तत्व की सिद्धि का आनंदोपभोग करूंगा ।

इसके साथ ही मैं आप सभी पाठक और लेखक जनों का स्वागत करता हूँ । आईये हम सब मिलकर शुरू करते हैं - “सप्त रश्मि”

।। आरंभ ।।